बदला जीने का रंग और ढंग
यहाँ भी है राखी सावंत और मल्लिका शेरावत........ !
लेख - रामकिशोर पंवार
पश्चिमी से आई शहरी आधुनिकता का भारत के ग्रामिण अँचलो में इस कदर असर हुआ है कि लोगो को रहन - सहन उसकी चाल-ढाल तथा रंग- रूप तक बदलने लगा है. गांव के लोग जिन्हे अनपढ़ , गोंड , गवार कह कर उलाहना दी जाती थी आज वही लोग अपने आप को किसी से कम नहींसमझ रहे है. तन से नंगे पेट से भूखे लोगो को अपने आगोश में पूर्ण रूप से जकड़ती आधुनिकता के प्रभाव का सबसे ज्यादा असर आदिवासी समाज पर पड़ा है. मध्यप्रदेश के बैतूल जैसे पिछड़े आदिवासी बाहुल्य जिले के साप्ताहिक बाजारो में आने वाली आदिवासी बालाओं को देखने के बाद उनके रंग-ढंग में आए अमूल चूल परिवर्तन ने व्यापारियो की चंादी कर दी है. साप्ताहिक बाजारो में नकली और घटिया सामग्री को मंहगे दामो वाली बता कर इस समाज की अशिक्षा का भरपूर फायदा उठा कर जहाँ एक ओर लोग मालामाल हो रहे है वही दुसरी ओर नकली मेहनतकश अशिक्षित समाज उपभोक्ता अधिनियमो को न जानने की वजह से ठगी का शिकार बन रहा है. साप्ताहिक बाजारो में अकसर देखने को मिलता है कि हर दुसरी - तीसरी दुकान नकली माल से भरी रहती है. नकली माल का इन लोगो के तन से लेकर मन तक बुरा असर पड़ा रहा है. सौंदर्य विशेषज्ञ जुही अग्रवाल कहती है कि बैतूल जिले के साप्ताहिक बाजारो में बिकने वाली इन्दौर मेड सौंदर्य क्रीम एवं अन्य सामग्री चेहरे से लेकर शरीर के विभिन्न अंगो पर बुरा प्रभाव डालती है. घटिया किस्म की लिपीस्टीक से होठो पर दाग पड़ जाते है. कई बार तो यह देखने में आया हे कि चेहरो पर भी सफेद दाग दिखाई पडऩे लगते है. सुश्री जुही मानती है कि आदिवासी समाज की युवतियाँ अपने सौंदर्य पर आजकल कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगी. आज के आदिवासी बालाए भले ही विश्व सुदंरी एश्वर्या राय को नहीं जानती हो पर वे अपने आप को एश्वर्या से कम भी नही समझती है. आज यही वजह है कि इन युवतियों के अपने रूप सौदंर्य के प्रति बढ़ते शौक ने उन्हे आज अपनी पारम्परीक वेशभुषा और संस्कृति से कोसो दूर कर दिया है. ग्रामिण अंचलो में बसे आदिवासी परिवार के नौजवान लड़के व लड़कियां दोनों ही कम उम्र से ही हाथ मजदूरी पर ठेकेदारों के पास काम करने के लिए जाने लगते है. मेहनतकश इस समाज की काम के प्रति बढ़ती लगन ने उन्हे हर मोर्चे पर लाकर खड़ा किया है.
सदियो से आदिवासी समाज की युवतियो एवं महिलाओं ने सोने के जेवर के स्थान पर चांदी के जेवरो को सबसे उपयोग में लाया है. चंादी एवं गीलट (खोटी चांदी) के ही सबसे अधिक जेवर खरीदने वाली इन युवतीयो के शरीर पर गले से लेकर पंाव तक दस हजार रूपये तक के जेवर लदे रहते है. उक्त जेवरो को केवल साप्ताहिक बाजारो एवं किसी कार्यक्रम में पहन कर आने वाली इन युवतीयो का शौक भी बदलता जा रहा है. बाजारो में अब तो कई युवतीयो को कोका कोली और पेप्सी पता देख आप भी हैरत में पड़ जाएगें कि दुसरो का अनुसरण करने वाली ए युवतियाँ आखिर किस ओर भागी जा रही है. आदिवासी समाज की युवतियाँ शादी के पहले भी नाक में नथ और कान में चांदी की बाली पहन लेती है. इन युवतियो को देखने के बाद आप एक पल में यह पता नही लगा सकते कि कौन शादी शुदा है और कौन कुवारी ! वे भले ही तन -मन और धन से गरीब है पर उनके शौक ने उन्हे कहीं का नही छोड़ा है. इनके द्वारा पहने गए आभुषणो के बारे में पगारिया ज्वेलर्स के संचालक नीतिन कहते है कि यह समाज सबसे इमानदार और वादे का पक्का है. उनका यह कहना था कि इस समाज की अज्ञानता का लोग भले ही फायदा उठा ले पर आज सबसे अधिक ग्राहक इसी समाज के साप्ताहिक बाजारो एवं तीज त्यौहार पर खरीदी- बिक्री कने के लिए आते है. अब समय की कहिए या आधुनिकता का असर अब इस समाज की महिलाओ का हमेल (जिसके सिक्को की माला भी कहते है . ) हस , पैर पटटी, शादी की कड़ी, पायल, बाखडिय़ा, सरी, सहित कई प्रकार आभुषण को पहन कर साप्ताहिक बाजारो एवं शादी विवाह के कार्यक्रम में जाती है. राजश्री से लेकर पान पराग तक खाने वाली इन युवतियो ने सप्ताह में एक बार दोमट मिटटी से नहाने के बजाय लक्स और रेक्सोना से नहाना शुरू कर दिया है. गोदना आज भी इनकी संस्कृति का अंग है जिसे वह नहीं छोड़ सकी है.
बैतूल जिले में रोजगार के सबसे बड़े केन्द्र पाथाखेड़ा कोयला खदान हो या सारनी ताप बिजली घर या फिर बहार की. इन खदानों से निकलने वाले कोयले को ट्रकों में भरना और खाली करने का काम करने वाली रेजा (आदिवासी युवतीयां) माली, जिस्मानी व दिमागी शोषण का शिकार होती है. अपनी मेहनत की मजदूरी लेने वह साप्ताहिक बाजारों के दिनों में जाती हैं. अकसर कई ठेकेदार भी इन को आसपास लगने वाले साप्ताहिक बाजारों के दिनों में जाती हैं. अकसर कई ठेकेदार भी इन को आसपास लगने वाले साप्ताहिक बाजार के दिनों में ही मजदूरी का रूपया देते हैं. दिन भर काम करने वाली आदिवासी युवतीयो को जब हाथ में मजदूरी मिलती है तो उन का चेहरा खिल उठता है . हफ्ते के आखिरी दिन जिस गांव, शहर में बाजार लगता है, वहां पर टोलियों में नाचती गाती ये आदिवासी औरतें खाना - पीना छोड़ कर अपने रूप श्रंगार एवं पहनावे की चीजों पर टूट पड़ती हैं . शहरी चकाचौंध में रच बस जाने की शौकीन ये आदिवासी युवतीयाँ अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई को लिपिस्टक , नेलपालिश, पाऊडर, बिंदिया, क्रीम पर खर्च करती हैं . कभी पोण्डस का पाऊडर खरीदने वाली युवतीयाँ आजकल क्रीम की मांग करने लगी है. साप्ताहिक बाजारो में अकसर देखने को मिलता है कि हर दुसरी - तीसरी दुकान नकली और मिलते - जुलते नाम और माल से भरी रहती है. नकली माल का इन लोगो के तन से लेकर मन तक बुरा असर पड़ा रहा है. सौंदर्य विशेषज्ञ जुही अग्रवाल कहती है कि बैतूल जिले के साप्ताहिक बाजारो में बिकने वाली इन्दौर मेड सौंदर्य क्रीम एवं अन्य सामग्री चेहरे से लेकर शरीर के विभिन्न अंगो पर बुरा प्रभाव डालती है. घटिया किस्म की लिपीस्टीक से होठो पर दाग पड़ जाते है. कई बार तो यह देखने में आया हे कि चेहरो पर भी सफेद दाग दिखाई पडऩे लगते है. सुश्री जुही मानती है कि आदिवासी समाज की युवतियाँ अपने सौंदर्य पर आजकल कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगी. आज के आदिवासी बालाए भले ही विश्व सुदंरी एश्वर्या राय को नहीं जानती हो पर वे अपने आप को एश्वर्या से कम भी नही समझती है. आज यही वजह है कि इन युवतियों के अपने रूप सौदंर्य के प्रति बढ़ते शौक ने उन्हे आज अपनी पारम्परीक वेशभुषा और संस्कृति से कोसो दूर कर दिया है.
बैतूल जिले के एक प्रमुख प्रेस फोटोग्राफर और पत्रकार हारून भाई के शब्दो में इन आदिवासी बालाओं का शौक फोटो खिंचवाना और हफ्ते में एक दिन आस पड़ोस में पडऩे वाले साप्ताहिक बाजार के दिनों में अच्छे कपड़े पहन कर मद मस्त होकर नाचना - गाना होता है . इस दिन ए युवतियाँ खूब रूप श्रंगार करने के साथ - साथ अपनी सखी सहेली को उत्प्रेरित भी करती है . नए समाज और नई क्रांति का आदिवासी समाज पर काफी असर पड़ा है. आज भी उन्मुक्त सेक्स के मामले अन्य समाज से दो कदम आगे रहे इस समाज के परिवारों में सेक्स को लेकर कोई बंदिश नही है. परिवार की ओर से मिली छूट का आदिवासी समाज की लड़कियां अपनी जात के युवकों के साथ भरपूर फायदा उठाती हैं . यह एक कटू सत्य अपनी जगह काफी मायने रखता है कि इन युवतीयो के फोटोग्राफी के शौक के चलते कई घरो के चुल्हे जलते है.
कुछ साल पहले तक देशी काटन के लुगड़े और फड़की से अपने शरीर को ढ़कनी वाली युवतीयाँ अब अपने गांव के आसपास लगने वाले साप्ताहिक बाजारो में अपने लिए ब्रा और पैन्टी की मांग करने लगी है. बैतूल जिले के विभिन्न साप्ताहिक बाजारो में कपड़े की दुकान लगाने वाले कन्हैया के अनुसार बाजारो में अब देशी सूती - काटन के लुगड़ो और फड़की के स्थान अब उन्हे पोलीस्टर की साडिय़ो के शौक ने घेर रखा है. आज यही वजह है कि गोंडवाना क्षेत्रो के साप्ताहिक बाजारो से सूती- काटन के कपड़ो की मांग कम होती जा रही है. अपने ऊपरी तन पर ओढऩे वाली फड़की के प्रति इन आदिवासी बालाओं की मांग में आई कमी के कारण इन फड़की को बनानें वाले कई छीपा जाति के लोग बेरोजगार हो गए है तथा उनका पुश्तैनी व्यवसाय भी लगभग बंद होने की कगार पर है. बैतूलबाजार के छीपा जाति के परमानंद दुनसुआ कहते है कि एक जमाना था जब हमारे घर के बुढ़े से लेकर बच्चे तब तक हर दिन कहीं न कही लगने वाले साप्ताहिक बाजारो में आने वाली मांग की पूर्ति के लिए काम करके थक जाते थे लेकिन आज हमे अपने पुश्तैनी व्यवसाय के बंद होने की स्थिति में दुसरो के घरो पर काम करना पड़ रहा है
फिल्मी संस्कृति का इन आदिवासी आलाओं पर इतना जबरदस्त असर पड़ा है कि ए टाकीजो में फिल्मे देखने के बजाए आजकल अपने घरो के लिए वी.सी.डी. पर दिखने वाली फिल्मो की सी.डी. खरीदने लगी है. आजकल गांवो में भी हजार दो हजार में बिकने वाले सी.डी. प्लेयरो ने गांव के लोगो को टाकिजो से दूर कर रखा है. मुलताई की कृष्णा टाकिज के संचालक कहते है कि पहले हर रविवार एवं गुरूवार साप्ताहिक बाजारो के दिन हमारी टाकिजो में शहरी दर्शको के स्थान पर गांव के ग्रामिण लोग ज्यादा आते थे. इनमें आदिवासी युवतीयो की संख्या सबसे अधिक होती थी लेकिन अब तो हमें खाली टाकीज में भी मजबुरी वश शो करने पड़ रहें है. ग्रामिण क्षेत्रो में आदिवासी समाज में आए बदलाव पर शोध करने वाली अनुराधा के अनुसार घर में दो वक्त की रोटी को मोहताज इन आदिवासी युवतीयो को पश्चिमी स़स्कृति ने अपने आगोश में ले लिया है. वे मानती है कि जिनके शरीर पर पहनने के लिए ढंग के कपड़ें नही होते थे वे ही आजकल भड़किले कपड़ो को पहनने लगी है. आदिवासी समाज में आ रहे बदलवा का ही नतीजा है कि ए किसी के भी चक्कर में पड़ जाती है.आदिवासी महिलाओं के साथ होने वाले यौन प्रताडऩा सबंधी अत्याचार पर अधिवक्ता अजय दुबे की राय यह है कि न्यायालय तक आने वाले मामले की तह तक जाने के बाद यह कहा जा सकता है कि लोभ और लालच की शिकार बनने वाली युवतीयाँ अपने केस के फैसले के समय भी लोभ लालच का शिकार बन जाती है. पैसो के बढ़ती भूख और उन पैसो से केवल अपने रूप श्रंगार तथा एश्वर्या से कम न दिखने की चाहत ही इन आदिवासी युवतीयो के जीवन में अमूल चूल परिवर्तन ला रही है. सेवानिवृत वनपाल दयाराम भोभाट के अनुसार मैने अपने वन विभाग की पूरी नौकरी इस समाज के बीच बिताई है इस कारण मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हँू कि इस समाज में आए बदलाव के पीछे गांव - गांव तक पहँुच चुकी टी.वी. और फिल्मी संस्कृति काफी हद तक जवाबदेह है. आपके अुनसार इन लोगो को फिर से उनकी संस्कृति के से जोडऩा होगा. अन्यथा हमें भी किताबों में ही पढऩे को मिलेगा कि आदिवासी ऐसे होते थे.
इति,
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